कलम

मैं जब भी टूटा हूं ,
मेरी कलम चली है,
जुबां क्या है, कुछ भी कह ले
पर लिखा हुआ असली है ,

सुबह छूटती दुनिया पकड़ी ,
दिन बीता  दुनियादारी में ,
धूप ढली तो थका हुआ ,
लौटा हूं सुखी क्यारी में,

हरियाली के चंद चांद थे ,
युग पतझड़ का बाकी है ,

मै हूं , सूखे पत्ते हैं ,
मिट्टी धूल बनी  है ,
तुम और याद आई हो ,
जब भी शाम ढली है,।

मैं जब भी टूटा हूं ,
मेरी कलम चली है,
जुबां कहे जो कह ले
लिखा हुआ असली है ,

हां नादान रहा होगा ,
छल से अनजान रहा होगा ,
पर किसको ये समझाएंगे ,
व्यथा कितनो को सुनाएंगे ,

और समझेगा कोई भला कैसे ,
के दिल मेरा मरुस्थल बना कैसे ,
सपनो की नदिया कैसे सूखी,
दिल टूटा कैसे, किस्मत कैसे रूठी,

कौन जवाब बताएगा,
दिल को कितने , दिल कितनो को समझाएगा ,

मुश्किल है ना , तो फिर जाने दो ,
लौट चलो इन गलियों से ,
कल फिर से इन्ही से जाना है ,
और उलझी बड़ी गली है,

मैं जब भी टूटा हूं ,
मेरी कलम चली है,
जुबां कहे जो कह ले
लिखा हुआ असली है ,

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